ब्रह्म तक कई तरीके से पहुंचा जा सकता है - सगुन या निर्गुण उपासना द्वारा। निराकार ब्रह्म की प्राप्ति बड़ी कठिन है; स्वरूप के अभाव में ध्यान करना मुश्किल है। अतः हमारे पूर्वजों ने हमें सगुण उपासना द्वारा भगवान तक पहुंचना सिखाया। इस मार्ग द्वारा प्रभु तक पहुंचना आसान बना दिया गया। इस उपासना में हम विग्रहवान प्रभु का ध्यान करते हैं। इसमें जब उन तक पहुंचने की उत्कंठा ही नहीं अपितु बेचैनी भी हो जाती है तब उनकी प्राप्ति हो जाती है। यही परमात्मा स्रष्टा, पालक एवं संघारक है।
महाकवि हरिनाथ पाठक
शरीरधारियों के जन्म में मां का योगदान कल्पनातीत है। कारण यह है कि उसे गर्भधारण से जन्म के उपरांत भी अनेकों कष्ट झेलने पड़ते हैं। पिता तो जन्म के बाद ही संतान के लिए कष्ट उठाता है। यही कारण है कि माता बच्चे से ज्यादा प्यार करती है। अतः उसे स्वर्ग से भी बढ़कर बताया गया है। जब शिशु के जन्म में लौकिक मां की भूमिका का इतना महत्व है तो जगत की सृष्टि में आदि शक्ति मां के योगदान का क्या कहना! ये परम दयामयी हैं। थोड़ी-सी सेवा करने से ही प्रसन्न हो जाती हैं और सेवक के पाप-ताप को समाप्त कर उसे दुर्लभ वस्तु दे देती हैं। इनके तीन रूप हैं - लक्ष्मी, सरस्वती और दुर्गा। शक्ति के बिना विष्णु श्रीहीन, शिव शव और ब्रह्मा वाणी विहीन हो जाते हैं; कुछ करने में समर्थ नहीं रहते। अखिल ब्रह्मांड-नायक कृष्ण शक्ति के अभाव में कुछ कर नहीं सकते तथा महत्वहीन हो जाते हैं। यही कारण है कि शक्ति के बिना उनकी उपासना अधूरी रह जाती है।
शक्ति की चर्चा वेदों-उपनिषदों में काफी है। वेद की श्रौत एवं गृह्य शाखाओं पर जो सूत्र ग्रंथ हैं वह कल्पसूत्र कहे जाते हैं। परशुराम कल्पसूत्र प्रमुख शाक्त ग्रंथ है।
कहा जाता है कि बुद्ध के बाद आगम की रचना हुई। हर वेदांत आगम शास्त्र का विषय है, यथा -शैवागम। इसमें शाक्त आगम भी है। जिस पद्धति में ऐसे विचार और क्रिया का विशद विवेचन हो उसे तंत्र कहा जाता है।
उक्त ग्रंथों के अलावे शाक्त पुराणों में इनकी काफी चर्चा है। यही कारण है कि पौराणिक युग को शक्ति-उपासना का यौवन काल कहते हैं। इस युग में शक्ति-उपासना का इतना महत्व बढ़ा कि वह घर-घर की उपासना बन गई। उन्हें जगदंबा, जगज्जननी आदि विशेषण दिये गये। महाभारत, देवीभागवत, मार्कंडेय पुराण, कल्कि पुराण, देवी पुराण, श्रीमद्भागवत महापुराण, मत्स्य पुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण, शिव पुराण तथा ब्रह्मांड आदि पुराणों में इनकी महिमा एवं साधना पद्धति का विस्तृत विवेचन है।
महाकवि सूर, तुलसी, मीरा और चैतन्य की परंपरा के वैष्णव कवि हरिनाथ जी महान शक्ति-साधक थे। इनकी रचनाएं ललित भागवत एवं ललित रामायण हिंदी साहित्य की बेशकीमती मंजूषा है जिनमें राधा, सीता, दुर्गा, पार्वती, गंगा, यमुना, तुलसी एवं कुलदेवी आदि शक्ति के विविध रूपों की महिमा की चर्चा है। ऐसे शायद ही कोई रचनाकार हुए हों जिन्होंने शक्ति के इतने रूपों की एक-साथ चर्चा की हो। वस्तुतः इनके रूपों में कोई भेद नहीं है, एक ही तत्व के इतने रूप हैं पर इनकी उपासना में राधा जी प्रमुख हैं; क्योंकि कवि को इन्हीं का साक्षात्कार मथुरा में हुआ था।
'राधा' शब्द के 'र' का अर्थ है -कोटि जन्मों के पाप। 'आ' का अर्थ गर्भ के कष्ट एवं रोगों को छुड़ाना। 'ध' का अर्थ है -आयु की हानि तथा 'आ' कार का अर्थ है -भव बंधन अर्थात राधा का अर्थ है -सारे अशुभ से मुक्ति और निश्चला भक्ति की दात्री।
यहां सर्वप्रथम संत कवि की राधा-शक्ति की उपासना की चर्चा की जा रही है। कारण यह है कि इसी शक्ति की चर्चा मुख्यतः इनकी रचनाओं में हुई है। कवि का विचार है कि कलिमल को दूर भगाने का एकमात्र उपाय है -राधा कृष्ण का भजन। प्रस्तुत भजन राग हरिगीता, ताल 3, पद छंद में निबद्ध है-
"श्री राधिका श्रीकृष्ण भज मन सकल कलिमल गंजनम।।
घन दामिनी छवि युगल तन निज जन मनोरथ रंजनम ।।1।।
भज अरुण पद कर अरुण अधर अरुण अरुण वर लोचनम् ।
बांके गमन बांके भौंहन बांके लखन भव मोचनम् ।।2।।
श्रीराधिका मुख लखत मोहन राधिका वर वर मुखम् ।।
युगल तन परसत परस्पर बहुत बढ़त सुरत सुखम्।।3।।
गोलोक लक्ष्मी राधिका श्री कृष्ण क्षिति भर खंडनम्।।
वृंदा विपिन रति रास मंडल कामिनी मुख मंडनम्।।4।।
हरि मारि बहुत बकी बकादिक कंस दुष्ट निकंदनम्।।
हरिनाथ जन बलदेव सहित अखिल सुख मुनि वंदनम्।।5।। -ललित भागवत से।
भक्त कवि का मन जगन्माता के दर्शन हेतु व्यग्र है। आपका मन अनाथ के समान घबरा रहा है। आपको अच्छी तरह मालूम है कि जगदंबा राधा परम दयामयी हैं, करुणा सिंधु हैं -ऐसा वेद-पुराण कहते हैं। अतः जगज्जननी की दया पर आपका विश्वास अटूट है कि वह अपने पुत्र को अवश्य शरण दे देंगी-
"जानि दुखित मोहि लीजिए करुणा सिंधु कृपाल।
मन घबरात अनाथ जस डर पावत नित काल ।।
सबके बहुत सहाय हैं मोहि नहीं कछु अवलंब।
आशा एक करौं सदा श्रीराधा जगदंब।।
निज जन पालक हैं सदा हृदय अंतर कर वास।
नयन विषय कब अइहें करुणा के सुखरास।।
वेद पुराण प्रमाण ये जानौ परम दयाल।
मिलिहें कब हरिनाथ के श्री राधा मदन गोपाल।।"
कवि की जगन्माता से प्रार्थना है कि वह इनकी मनोकामना पूरी कर दें। आपकी अभिलाषा है -वृंदावन की शोभा में रम जाने की। वहां के गौऔं को चराना, वृंदावनेश्वरी की सखियों-सेविकाओं के दर्शन करना यही आपके जीवन का एकमात्र उद्देश्य है। नीले पीतांबर एवं रत्नों से सुशोभित गोलोक स्वामिनी के शरीर में निज हाथों से नव पुष्प के भूषण पहनाना आपको अति प्रिय है। कवि की हार्दिक इच्छा है कि वह श्यामा श्याम का दास कहे जायें-
"राग पहारी। झंझौटी फाकता। ताल 3।पद चैतार
यही मोर याचना यो मन भावे सुख पावे री राधे।
रयन दिवस के विलास वृंदावन लोचन सुख लखि आवे री राधे।।1।।
दिन गोपाल खेल सखा संग निशि दिन तन भावे री राधे।।2।।
नील पीतांबर रतन फूलन भूषण रचि पहिरावे री राधे।।3।।
जन हरिनाथ पिआर सभन के दासी दास कहावत री राधे।।4।। -श्रीललित भागवत से
श्री वृषभानु-कन्या बरसाने की धरा पर अवतरित हो चुकी हैं। एक सखी दूसरी सखी से इस अद्भुत बालिका को देखने का परामर्श करती है। परम भाग्यवान वृषभानु के घर हीरे-मोती लुटाए जा रहे हैं। झाल, मृदंग, मंजीरे बज रहे हैं। संत कवि वृषभानु-दुलारी को छोड़कर कुछ अन्य नहीं चाहते। आपकी एकमात्र चाह है -उन्हें पाना।
"जय रहे नंदलाल श्री राधे लली के जय रहे।
बाबा एही मैया एही लाला एही धन धान वाहन सुख एही इनके लखि न भय रहे।।1।।
इनहीं के नाम कहे वचन कानों कथा इनकी सुने समुझे सदा इनही के मन इनही नयन चितै रहै।।2।।
इनके बिना कहीं सुख नहीं विकराल भव जंगल में, मन इआद कर पहला सजन जिन छोड़के कहीं गय रहे।।3।।
हरिनाथ के हियरे गगन विलासे सदा चारों चरण एतना मनोरथ है मेरा भव जाल सुख विलगै रहे।।4।।
अब महाकवि द्वारा वर्णित शक्ति के अन्य रूपों की चर्चा की जाती है। आपके मतानुसार जीवों की दुर्गति को दूर करने के कारण हम इन्हें दुर्गा कहते हैं। इन्हें काली इसलिए कहते हैं कि वह काल स्वरूपा हैं; करुणामयी होने के कारण सबों का पालन करती हैं। जीवों के उद्धार हेतु अनेक अवतार लेती हैं। यह शुंभ-निशुंभ विनाशिका, सुर-मुनियों के तेज-पुंज स्वरूपा महिषासुरमर्दिनि यशोदा कुमारी हैं। आपके हाथ में तलवार एवं नर कपाल गले में मुंडमाला तथा आप अभयवरदायिनी है जो भक्ति के वश में होकर भक्त के हृदय में विराजती हैं -'दुर्गे दुर्गतिनाशिनी भगवती जगदंबे काली' -ललित भागवत से
पार्वती के विवाह का प्रसंग है। त्रिभुवन-नाथ शिव इनके वर हैं। दु:ख विनाशिका गिरिजा कुमारी दुल्हन हैं। हिमालय प्रसन्न मन से कन्यादान कर रहे हैं। उस समय जय-जय की ध्वनि होती है और देवगण पुष्प-वृष्टि करते हैं; कवि का कथन है कि शिवजी सिंदूर बेचने आए हैं; पार्वती अपने मनोनुकूल खरीदती हैं। वर निरंजन महादेव से स्नेह जोड़ती हैं। मंडप में सखियों के बीच वर-वधू की शोभा वर्णनातीत हैं। इस छवि पर जन-मन मुग्ध हैं। जैसे ही गिरजा वर को देखती हैं उनका शरीर पुलकित हो जाता है और वह सुध-बुध खो बैठती हैं -"त्रिभुवन महादेव वर मन रंजन हे दुलहिनी गिरिजा योग सुंदर दुख भंजन हे।" -श्री ललित रामायण से।
भगवान श्री राम की शक्ति सीता जी के जन्म का प्रसंग है। वसंत ऋतु नवमी तिथि को तीनों लोकों की पालिका श्री सीता जी का उदय हुआ है। उस समय शीतल मंद सुगंध पवन जन-मन को आह्लादित कर रहा है। पुष्प-वृष्टि हो रही है। राजा जनक जी लोगों के बीच मनोनुकूल रत्न लुटा रहे हैं। सखियां सोहर गाती है और देवगण मधुर संगीत। इस प्रकार अमंगल नाशिनी ध्वनि आकाश में गूंज रही है। माता सुनैना अपनी लाडली को हृदय से लगाकर मनोकामना पूरी करती हैं -"धन-धन माधव शुदी नवमी दिन हो, ललना त्रिभुवन पालिनी धरिणी में जन्म लिन हो।" -श्री ललित रामायण से।
कवि की दृष्टि में तुलसीजी भी भगवान की शक्ति हैं। विटप,शाखा, मूल, मंजरी स्वरूपा तुलसी नेत्रों को बड़ी अच्छी लगती हैं। संसार के दु:ख को दूर करने वाली, जन-मन को आनंदित करने वाली स्वकीय जनों की गुण-स्वरूपा करुणामयी तुलसी सुख एवं भक्तिदायिनी हैं। अतः सर्वस्व त्याग कर इनकी सेवा करनी चाहिए -
"भज रे मन तुलसी महाराणी।
शाखा मूल विटप मंजरी तरुण सोहावन मन राणी" -श्री ललित भागवत से।
कवि की इच्छा है कि मनुष्य को यमुना के तट पर बसना चाहिए। नित्य प्रति यमुनाजी के दर्शन कर उनका जल पीना चाहिए। जमुना-जल, भंवर और तरंगे दर्शनीय हैं। इससे दु:ख, विपदायें एवं वासनायें दूर हो जाती हैं। चित्त निर्मल हो जाता है; मनोकामनाएं पूरी हो जाती हैं -'बसो मन यमुना जी के तीर।" -श्री ललित भागवत से।
कवि की कुलदेवी का नाम सिद्धेश्वरी है। उन्होंने उनके पैर पकड़ लिए हैं। देवी के दोनों कर-कमल भूषण युक्त हैं। उनका शरीर फब रहा है। यह शाकद्वीपीय द्विज विशेष उरवार के यहां रहती हैं। वह भक्तों को कृपा-दृष्टि से देखती हैं -'भज सिद्धेश्वरी निज कुलदेवी।' श्री ललित भागवत।
माता लक्ष्मी की शरण सदा सुखदायिनी है। अपराध का फल मिलने पर लड़का चंचल हो जाता है; और मां-मां पुकारने लगता है; उनके चरण पकड़ लेता है। जीव अनाथ है। मां दयामयी हैं। जीव पतीत है; मां तारने वाली है। वह रोगी है; मां दया स्वरूपा है। जीव प्यासा है; मां अमृत है। बहुत दिनों तक प्यासा रह कर जीव मां की शरण में आया है। सांसारिक विषयों की चिंता में जीव को चैन नहीं मिलता। कवि की इच्छा है कि मां उन्हें अपने अंक में सुला लें। यही मां से प्रार्थना है -"शरण महा लक्ष्मी सदा सुखदाई" -श्री ललित भागवत से।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि महाकवि हरिनाथ शक्ति के विभिन्न रूपों के महान उपासक हैं। महाकवि को कोटिशः नमन!
सम्पादक:-धर्मेन्द्र कुमार पाठक
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