कइसे जियब ए जान...

तोरा  बिना  हम  कइसे  जियब ए जान. अन्दरे   हमर   दिल   खखोरैत  हे परान.               दिलवा   हमर  तो   हे  केतना  नादान,                तनिको   ना    रह   हे   एकरा  धेयान. चोरी - चोरी  रोज  हम  करहिओ बात, तैयो  ना   जिउआ  हमर  जुड़ा हे जान.                   मोबलिया से  हमर  मनमा ना भर हौ,                    मिलेला  मनमा अबतो खूब छछन हौ.  दुखवा के तू कब  आके करब निदान, मिलेला   तोरा  से  छछनैत   हौ प्रान.                                       -धर्मेन्द्र कुमार पाठक.

ग़ज़ल -धर्मेन्द्र कुमार पाठक

फिजा में फिर वही खामोश हलचल है।
सैय्याद की बाहों में कैद अब बुलबुल है।।
शहर में छाई है   अब मातमी खामोशी।
शैतानों के घर खूब यहां चहल - पहल है।।
दरख़्तों पर  डाला है  बाजों ने  बसेरा।
सहमा - सहमा आज   सारा जंगल है।।
हर दिल को इतना गहरा पहुंचा है सदमा।
अब  चारों तरफ से    घेरे हुए दलदल है।।
कितना खौफनाक हो गया इस जहां का मंज़र।
कतरा - कतरा  कटा हुआ  अब हरेक गुल है।।
तूफान में  घिरी हुई है  जैसे अब कश्ती।
दोस्तों, मझधार में खोई हुई मंजिल है।।

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