कइसे जियब ए जान...

तोरा  बिना  हम  कइसे  जियब ए जान. अन्दरे   हमर   दिल   खखोरैत  हे परान.               दिलवा   हमर  तो   हे  केतना  नादान,                तनिको   ना    रह   हे   एकरा  धेयान. चोरी - चोरी  रोज  हम  करहिओ बात, तैयो  ना   जिउआ  हमर  जुड़ा हे जान.                   मोबलिया से  हमर  मनमा ना भर हौ,                    मिलेला  मनमा अबतो खूब छछन हौ.  दुखवा के तू कब  आके करब निदान, मिलेला   तोरा  से  छछनैत   हौ प्रान.                                       -धर्मेन्द्र कुमार पाठक.

पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव -धर्मेन्द्र कुमार पाठक

आधुनिक भारत में भारतीय समाज पर पाश्चात्य संस्कृति का व्यापक प्रभाव पड़ा है। इसने हमारी युवा वर्ग की मानसिकता को बहुत अधिक प्रभावित किया है। परंपरागत संस्कारों की अवहेलना और आलोचना इनके स्वभाव में परिलक्षित हो रहा है। कोराना की फैली महामारी ने हमारे संस्कारों की पुनः याद दिला दी है। अब हमें पूर्वजों द्वारा दिए गए संस्कारों पर गर्व करने का समय आ गया है। आलोचकों के होंठ सिल गए हैं। अब सबको समझ में आ गया कि हमारे पूर्वजों द्वारा दिए गए संस्कारों में कितनी वैज्ञानिकता छिपी हुई थी। अतः हमें पाश्चात्य संस्कृति के अंधानुकरण से बचना चाहिए।
वर्तमान समय में गुरुजनों के प्रति हमारा आदर-भाव तिरोहित हो चला है। हम अंधविश्वास और रूढ़िवाद के विरोध के साथ-सथ अपने अच्छे और विशिष्ट संस्कार जो हमारी संस्कृति की विशेषता है उसे भी खोते होते चले जा रहे हैं। जिस तरह हमें अंधविश्वासों को आंख मूंदकर नहीं स्वीकारना चाहिए उसी तरह अपने विशिष्ट संस्कारों को भी दरकिनार नहीं करना चाहिए।
यह सत्य है कि पाश्चात्य संस्कृति के प्रभावस्वरूप हमें बाल-विवाह और सती-प्रथा जैसी कुप्रथा मिटाने में सहयोग मिला। फिर भी, भारतीय संस्कृति का पाश्चात्यीकरण उचित नहीं। आजकल अधिकांश लोगों का खान-पान, रहन-सहन, बोलचाल आदि पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित है। 
पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव ने भारत में एक परंपरावादी और दूसरा प्रगतिशील विचारधारा को जन्म दिया। परंपरावादियों को अपनी संस्कृति पर गर्व है। अपनी संस्कृति को ये सर्वोत्तम समझते हैं। इसमें वे किसी तरह का कोई परिवर्तन नहीं स्वीकारते। ये अपनी संस्कृति, अपना धर्म और अपने धर्मग्रंथों की रक्षा करने में सफल भी रहे। ऐसे ही परंपरावादियों ने आज भी अपनी संस्कृति को अक्षुण्ण बनाए रखा हुआ है।
आधुनिकता पसंद प्रगतिशील विचारधारा ने स्वतंत्र चिंतन को विकसित किया। इससे तर्कपूर्ण यथार्थवादी चिंतन का विकास हुआ। ब्राउन, बेंथम, लॉक, स्टुअर्ट सदृश दार्शनिकों के अध्ययन ने युवा वर्ग की मानसिकता में परिवर्तन लाया। रूसो, बाल्टेयर और एडम जैसे सामाजिक चिंतकों के विचार ने हमारे सामाजिक सोच को परिष्कृत किया।
पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव ने हमारी संयुक्त परिवार की प्रथा को लगभग समाप्त कर दिया है। आज हम अपने परम पूजनीय माता-पिता से अलग होते जा रहे हैं। ऐसे बहुत से दुःखी मां-बाप अपने पुत्र-पुत्रियों द्वारा उपेक्षित एकाकी जीवन जीने को विवश हैं। आज के युवा वर्ग को इस ओर ध्यान देने की बड़ी आवश्यकता है।

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