कइसे जियब ए जान...

तोरा  बिना  हम  कइसे  जियब ए जान. अन्दरे   हमर   दिल   खखोरैत  हे परान.               दिलवा   हमर  तो   हे  केतना  नादान,                तनिको   ना    रह   हे   एकरा  धेयान. चोरी - चोरी  रोज  हम  करहिओ बात, तैयो  ना   जिउआ  हमर  जुड़ा हे जान.                   मोबलिया से  हमर  मनमा ना भर हौ,                    मिलेला  मनमा अबतो खूब छछन हौ.  दुखवा के तू कब  आके करब निदान, मिलेला   तोरा  से  छछनैत   हौ प्रान.                                       -धर्मेन्द्र कुमार पाठक.

स्त्री विमर्श -धर्मेन्द्र कुमार पाठक

स्त्री सृष्टि का सृजन करती है। इसकी सृजनात्मक शक्ति द्वारा ही सृष्टि का कार्य संपादन होता है। प्रकृति और पुरुष के सम्यक प्रयत्न से यह प्रक्रिया निरंतर निर्बाध गति से जारी रहती है। 'शिवा' की जगत व्यापिनी शक्ति के अभाव में 'शिव' जैसे शव के समान हैं, जगत प्रतिपालक भगवान श्रीहरि लक्ष्मी के बिना श्रीहीन हैं। उसी तरह पुरुष नारी शक्ति के अभाव में अपूर्ण है। अतः इस संसार में दोनों का ही अपना विशिष्ट महत्व है। इन दोनों में से कोई भी बड़ा या छोटा नहीं है, ऊंच या नीच नहीं है बल्कि दोनों की ही समान प्रतिष्ठा है। अतः नारी के प्रति किसी भी परिस्थिति में असम्मान की भावना सर्वथा अनुचित है, क्योंकि ऐसा होने से समाज में बहुत बड़े अनर्थ की संभावना है। हमारे देश के मनीषियों ने इस ओर संकेत करते हुए लिखा है -" यत्र नार्यंस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र  देवता"।
स्पष्ट है स्त्रियों का आदर हमें देवत्व के सन्निकट लाता है। अतः नारी सदैव वंदनीया है। गृहस्थ जीवन बगैर इनके सहयोग के चल नहीं सकता। यह घर की स्वामिनी होती है। सारे मानवोचित संस्कार मनुष्य अपनी मां से ही सीखता है। अतः 'सामान्य मानश्चैता हि सर्वकार्यsवाप्तस्थ' अर्थात स्त्रियों का सम्मान करके सभी कामनाएं प्राप्त की जा सकती हैं और जहां स्त्रियों के प्रति असम्मान की भावना होती है वहां के सारे सांसारिक और धार्मिक कार्य अपूर्ण होते हैं -'अपूजिताश्च यत्रैत: सर्वास्ताफला क्रिया:'।
भारत में नारी के प्रति असम्मान की भावना का प्रादुर्भाव उत्तर वैदिक काल के बाद ही हुआ क्योंकि इस काल तक नारी अपने वैवाहिक और व्यवहारिक जीवन का निर्णय स्वयं करती थी। वह स्वयं वरण द्वारा अपने पति का चुनाव करती थी -"ब्रह्मचर्येण कन्या युवान विन्दते पतिम्"। स्पष्टत: इस काल में नारी की स्वतंत्रता अक्षुण्ण थी।
इसके बाद के कालो में नारी के प्रति हमारे दृष्टिकोण में निरंतर ह्रास हुआ। फलत: नारी की स्थिति पतनशील होती चली गई और एक समय तो ऐसा आया कि उसे सिर्फ 'भोग्या' समझा जाने लगा। गुप्त काल में नारी की स्थिति कुछ अच्छी रही। उत्पीड़न तथा अपमानित महिला को उसकी सामाजिक स्थिति प्राप्त करने की देवल तथा अत्रि ने अनुमति दी। वात्स्यायन ने स्त्रियों को 64 कलाओं में निपुण होने की बात कही है।
सल्तनत काल में स्त्रियों की स्थिति अच्छी न होने के बावजूद रजिया सुल्ताना (1236 - 40) मध्यकालीन भारत की पहली तथा अंतिम मुस्लिम शासिका बनी। इसने अपने आप को चतुर कूटनीतिज्ञ तथा युद्धनीतिज्ञ के रूप में प्रस्तुत किया। मुगल काल से स्त्रियों की स्थिति में गिरावट की जो प्रक्रिया प्रारंभ हुई वह अनवरत बहुत दिनों तक जारी रही। आधुनिक काल में राजा राममोहन राय ने इस दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किया। उन्होंने ब्रह्म समाज की स्थापना कर सती प्रथा, बहुविवाह, वेश्या गमन आदि का प्रबल विरोध किया।
आज की नारी जागरूक है, सबला है। पुरुषों के साथ वह कदम से कदम मिलाकर चलने में समर्थ है। आधुनिक भारतीय राजनीति में भूतपूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय श्रीमती इंदिरा गांधी ने अपनी बुद्धिमत्ता का अकाट्य प्रमाण दिया। उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि नारी अबला नहीं सबला है। उसे केवल श्रद्धा ही नहीं सहभागिता भी चाहिए। फिर भी रूढ़िवादी मानसिकता से ग्रसित लोग भारत की मनश्विनी महिलाओं का आदर्श प्रस्तुत कर आज की नारी को क्षमता अनुरूप अग्रसर होने की आलोचना करते हैं। यह उचित नहीं अपितु हमें तो उनके बहुमुखी व्यक्तित्व के विकास में हर संभव सहयोग करना चाहिए।

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