आज कोरोना का जो संकट है उसका प्रभाव हमारे देश के बच्चों पर भी पड़ रहा है। बच्चे जब संक्रमण का सामना करते हैं या सामना करते हुए लोगों को देखते हैं तो उनके मन में क्या प्रतिक्रिया होती है या क्या प्रतिक्रिया होती होगी; इसका विश्लेषण आवश्यक है। कोई भी मनुष्य अपने जीवन में किसी तरह का कोई संकट नहीं चाहता लेकिन हमारा जीवन संकटों से भरा पड़ा है। हर कदम पर नए-नए संकटों का सामना करना पड़ता है, जूझना पड़ता है और जीवन की जंग को अंततः जीतना पड़ता है। जीत की इसी चाह में कभी-कभी अवसाद का सामना भी करना पड़ता है। इस अवसाद का व्यापक असर हमारे जीवन पर भी पड़ता है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कोरोना को एक वैश्विक महामारी घोषित किया है। कोरोना वायरस मानव की बाल की तुलना में 900 गुना छोटा होता है लेकिन इसका संक्रमण दुनिया में तीव्र गति से फैल रहा है और यह संपूर्ण विश्व को एक विचित्र तरह के संकट में डाले हुए हैं।
संकट तो कोई नहीं चाहता लेकिन मानव जीवन संकटों की कहानियों से भरा पड़ा है। आंखों से जब बच्चे तड़पते-बिलखते, रोते-छटपटाते, असहाय, जान बचाने के लिए इधर-उधर बेतहाशा भागते हुए लोगों को देखते हैं तो जीवन के प्रति उनके दृष्टिकोण में व्यापक बदलाव आता है। जीवन की नश्वरता तो सर्वविदित है ही लेकिन अपने सुकर्म से प्रतिष्ठा पाने की ललक हर किसी में होती है। इसीसे मनुष्य में जीने की इच्छा जगती है और वह अपने कार्य में तल्लीन हो जाता है।
अब जरा कल्पना कीजिए की कोरोना संक्रमण के भयंकर दृश्यों को जब एक अबोध बालक देखता है तो उसके मन में जीवन के प्रति कौन-सी अवधारणा बद्धमूल होती होगी।
आज इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का युग है। डिश एंटीना और केबल के सहारे विभिन्न चैनलों द्वारा इस संकट के वीभत्स दृश्यों के जीवंत प्रसारण से कोमल मन पर पड़ने वाले विभिन्न प्रभावों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। मेरा उद्देश्य कोरोना संक्रमण से बाल-मन पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों की ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट करना है। संपूर्ण विश्व में इस गंभीर समस्या पर विचार की अपेक्षा है।
उनके मस्तिष्क में उत्पन्न उग्रता, भय और आतंक का दुष्प्रभाव भविष्य में उनके संपूर्ण जीवन पर पड़ सकता है। वे किसी मानसिक रोग के शिकार हो सकते हैं। उनके व्यक्तित्व के बहुआयामी विकास के लिए वातावरण को शांत और सौहार्दपूर्ण होना अत्यंत ही आवश्यक है।अतः मीडिया को ऐसे दृश्यों के सम्प्रेषण में संयमित होना चाहिए।घर के अभिभावकों को बच्चों पर ध्यान देना चाहिए ताकि कोमल-मन पर इसका कोई दुष्प्रभाव न पड़े।
प्रिंट मीडिया में प्रकाशित युद्ध, विभीषिका और इसी तरह के संकट के विवरण पढ़ने के लिए धैर्य चाहिए और फिर एक ही विषय पर कई आलेख होने से व्यक्ति उनमें से चयन कर अपनी इच्छा अनुसार अध्ययन के लिए स्वतंत्र है, परंतु इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के साथ ऐसी बात नहीं। आजकल सोशल मीडिया पर भी अनेक तरह के वीभत्स दृश्य संप्रेषित होते हैं। हमारे देश के बच्चे भी सोशल मीडिया से संबंधित हैं और वे लगातार इसके संपर्क में होते हैं। इस पर प्रसारित या संप्रेषित विचारों, आलेखों और चित्रों से उनके मन पर भी असर पड़ता है। सूचनाओं के बढ़ते संजाल में आज संपूर्ण विश्व एक गांव जैसा हो गया है। अब प्रतिपल की घटनाएं जीवंत दृश्यों के माध्यम से सर्वत्र दर्शनीय हो गई हैं। आंखों से देखी चीजों पर विश्वास शीघ्र पनपता है। ठीक ही कहा गया है-'Seeing is believing'।
लोकतंत्र में समाज के नवनिर्माण में मीडिया को अत्यंत ही महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करना होता है। समाज को जागरूक तथा ज्ञान-समृद्ध करने के लिए इसका स्वतंत्र होना अनिवार्य है और उतना ही आवश्यक है इसे मर्यादित और अनुशासित होना भी, क्योंकि स्वतंत्रता जब निरंकुशता का रूप धारण कर ले तो इसके और भी भयंकर दुष्परिणाम हो सकते हैं। अतः समाज में पनप रहे विभिन्न अपराधों के परिप्रेक्ष्य में मीडिया की भूमिका की समीक्षा आवश्यक है। संचार क्रांति के इस युग में समाज के प्रति इसका उत्तरदायित्व पहले की अपेक्षा अब कुछ अधिक ही है।
चूंकि सूचना एक शक्ति है। अतः जो विभिन्न तरह के विशिष्ट जानकारियों से संपन्न है, वह अवश्यमेव शक्तिशाली है। समाज के सही दिशा में बहुमुखी विकास के लिए मीडिया को अपने उत्तरदायित्व के प्रति सजग और मानवीय मूल्यों के प्रति संवेदनशील होना अति आवश्यक है। यह एक प्रसार माध्यम है जिससे इसके दुरुपयोग की संभावनाएं बलवती हैं। अतः इसे स्वनुशासित होना चाहिए। सर्वश्रेष्ठ और सबसे आगे होने की होड़ में मर्यादाओं का हनन कदापि नहीं होना चाहिए।
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