कइसे जियब ए जान...

तोरा  बिना  हम  कइसे  जियब ए जान. अन्दरे   हमर   दिल   खखोरैत  हे परान.               दिलवा   हमर  तो   हे  केतना  नादान,                तनिको   ना    रह   हे   एकरा  धेयान. चोरी - चोरी  रोज  हम  करहिओ बात, तैयो  ना   जिउआ  हमर  जुड़ा हे जान.                   मोबलिया से  हमर  मनमा ना भर हौ,                    मिलेला  मनमा अबतो खूब छछन हौ.  दुखवा के तू कब  आके करब निदान, मिलेला   तोरा  से  छछनैत   हौ प्रान.                                       -धर्मेन्द्र कुमार पाठक.

पाद स्पर्शं क्षमस्व मे (प्रपितामह स्व. भागवत पाठक को याद करते हुए) -धर्मेन्द्र कुमार पाठक

आज जब पुरानी चित्रावली के पन्ने पलट रहा था तो अचानक  उनका चित्र पाकर भाव-विभोर हो गया। अंतस्थल में पुरानी स्मृतियों के चित्र उभर आये। पता नहीं ऐसा क्या था उनके पांव में कि हम लोग उससे चिपके रहते । बाबा हमें प्यार से कुछ किस्से सुनाते। कभी भक्त ध्रुव के बारे में तो कभी भक्त प्रह्लाद के बारे में। जब घर में भोजन बनता तो हम उन्हें बुलाने जाते। तब तक वे स्नान-ध्यान, पूजा-पाठ कर तैयार हो रहे होते। मां कहती- "जा, बाबा को बुला ला"। तो हम दौड़ते, गिरते-पड़ते भागकर उनके पास पहुंच जाते । वे हमें देखते ही सब समझ जाते। जैसे इन सब का उन्हें पूर्वाभास हो। उन्हें पता होता कि क्या बात है। जब मेरी नजर उनके ललाट पर पड़ती तो उस पर श्वेत चंदन लगा होता। बदन पर झक सफेद-धोती और बगल बंदी कुर्ता में वे कोई देवदूत-से लगते । उनके कंधे पर अंगोछा और सिर पर पगड़ी भी होती। घर आते तो उनका आसन लगा होता सब कुछ बिल्कुल स्वच्छ। वे प्रायः अकेले ही भोजन करते। कभी-कभी हम लोग बाल हठ के कारण उनके साथ भोजन करने की जिद्द करते। कभी हमें वे खिलाते भी परंतु अक्सर वे पवित्रता का पालन करते। खानपान में बिल्कुल स्वच्छता का ध्यान रखते। उनसे हमने पवित्रता के कई आचरण सीखे। आज सोचता हूं तो लगता है कि कितना वैज्ञानिक तरीका था उनका भोजन करने का।वह हमें पास बुलाते और संस्कृत के श्लोक याद करवाते- "सरस्वती देवी महादेवी वीणा पुस्तक धारिणी। हंस वाहन संयुक्ता विद्यादानम् करो तु मे ।।" एक और श्लोक उनका याद करवाया हुआ है -"कनक कुंडल मंडित गण्डया जघनदेश निवेशित वीणया। अमर राज पुरे सुरकन्यया तव यशो विमलं परिगीयते"। मुझे उस समय इसके अर्थ का कुछ भी ज्ञान नहीं था। बस यूं ही याद कर लिए थे।प्रायः उनके पास कुछ मिश्री की कलियां रहती। हम लोग उनके पैर दबाते तो वे हमें उसमें से कुछ खाने को देते। उन कलियों में ऐसा स्वाद होता कि आज भी उसे याद कर मेरे मुंह में पानी आ जाता है। वह हमें कभी-कभी पैसे भी देते। हम लोग खुशी के मारे उछल पड़ते!
बाबा अपने समय के प्रसिद्ध भागवत कथा वाचक थे। आज भी कई शिष्य परिवार उनके प्रति श्रद्धा भाव रखते हैं और हम लोगों का उसी तरह सम्मान करते हैं। वे घर पर बहुत दिनों के बाद आते। प्रायः उनका बाहर ही रहना होता। वे घूम-घूम कर श्रीमद्भागवत कथा लोगों को सुनाया करते। बात आजकल की नहीं है कि हर जगह, हर चैनल पर कथकड़ियों की जमात खड़ी है। उस समय ऐसे सरस कथा वाचक कम ही थे। वे जब गांव में आते तो वहां भी उनका श्रीमद् भागवत कथा परायण जारी रहता। उस समय गांव के ही कुछ लोग दलान पर आते और उनसे श्रीमद् भागवत कथा सुनते। उस समय बिहार के अधिकतर गांव में उनके श्रोता होते थे। प्रायः लोगों के बुलावे पर  वे कथा सुनाने जाते क्योंकि उनकी कथा में ऐसा प्रवाह ही होता कि लोग खींचे चले आते। सभी उनसे कथा सुनने को उत्सुक रहते। उनका चरित्र भी उद्दात था। वे सहज, सरल, मानववादी गृहस्थ और स्वभाव से सन्यासी थे।वैसे उनका स्वभाव भागवतमय था। नाम भी यही था। कहते हैं उनका जन्म भागवत कथा परायण के समय की हुआ था जब घर में श्रीमद् भागवत कथा चल रही थी। उस समय उनके पिताजी भी श्रीमद् भागवत कथा कहीं अन्यत्र सुना रहे थे। उसी समय उन्हें उनके जन्म की सूचना मिली तो उन्होंने उनका नामकरण भी भागवत ही कर डाला। बडका बाबा उनके के बारे में ऐसा  ही कुछ बताते थे। छोटी-सी उम्र में सुनी बात जो मुझे याद है वह मैं बता रहा हूं। आज उनके वंशजों का परिवार बहुत विस्तृत है। एक-से-एक बड़े पदाधिकारी हैं तो मुझ जैसे कुछ सामान्य लोग भी हैं। मेरे पास उनका एक दुर्लभ चित्र है जो मैं  सभी लोगों के साथ शेयर करना चाहता हूं। शायद किसी को उनकी याद आये!शायद वे किसी की स्मृतियों में आज भी हों। प्रातः स्मरणीय स्मृति शेष प्रपितामह के श्री चरणों में साष्टांग दंडवत! कोटिश: नमन!!

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