कइसे जियब ए जान...

तोरा  बिना  हम  कइसे  जियब ए जान. अन्दरे   हमर   दिल   खखोरैत  हे परान.               दिलवा   हमर  तो   हे  केतना  नादान,                तनिको   ना    रह   हे   एकरा  धेयान. चोरी - चोरी  रोज  हम  करहिओ बात, तैयो  ना   जिउआ  हमर  जुड़ा हे जान.                   मोबलिया से  हमर  मनमा ना भर हौ,                    मिलेला  मनमा अबतो खूब छछन हौ.  दुखवा के तू कब  आके करब निदान, मिलेला   तोरा  से  छछनैत   हौ प्रान.                                       -धर्मेन्द्र कुमार पाठक.

जेठ की जवानी -धर्मेन्द्र कुमार पाठक



वैैशाख को मिल गयी जेठ की जवानी। 
     और धरती चिल्ला रही है -"पानी! पानी!!"

            आज गाय-भैंस के फेफड़े फूल रहे,
                 बछड़े-बछड़ियों के नथूने झूल रहे,
                        मृग-मृगा मरीचिका में भूल रहे; 
                             तड़फड़ा रही जंगल की रानी॥ 

        रेत में धँस गये ऊँटों के पाँव, 
            फ़सलों के जलने से सूना हुआ गाँव, 
                        श्रृंगालों के सारे उलटे हुए दाँव; 
                        छप्पर जले बची बस घर की निशानी॥

 ऊपर से सूर्यदेव दाग रहे गोले,
      पवन के हाथों में हैं आग के शोले, 
        कृपा करो हे, महादेव बमबम भोले;
                   पूरे पूर्वोत्तर की यही है कहानी॥

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