कइसे जियब ए जान...

तोरा  बिना  हम  कइसे  जियब ए जान. अन्दरे   हमर   दिल   खखोरैत  हे परान.               दिलवा   हमर  तो   हे  केतना  नादान,                तनिको   ना    रह   हे   एकरा  धेयान. चोरी - चोरी  रोज  हम  करहिओ बात, तैयो  ना   जिउआ  हमर  जुड़ा हे जान.                   मोबलिया से  हमर  मनमा ना भर हौ,                    मिलेला  मनमा अबतो खूब छछन हौ.  दुखवा के तू कब  आके करब निदान, मिलेला   तोरा  से  छछनैत   हौ प्रान.                                       -धर्मेन्द्र कुमार पाठक.

औरत की मजबूरियां -धर्मेन्द्र कुमार पाठक



समाज  की यह कैसी विचित्र मजबूरियां!
औरतों  के  हाथ में  सौ-सौ  हथकड़ियां!!

आजादी  का  जश्न  लगता बहुत  फीका,
औरतों  को  घर में  ही  इतनी ड्योढ़ियां!

सिर्फ   कहने  को  भारत  है  हमारी  मां,
औरत  के  पांव  में  इतनी क्यों  बेड़ियां!

सभी जगह डर का एक अनजान साया, 
उसके  लिए  जैसे  सिमटी  हुई  दुनिया!

हर शख्स क्यों अब दीख  रहा है शैतान,
औरत  के लिए  दिल में सिर्फ हैवानियां!

वक्त  ठहरता  है  कहां  किसी  के  लिए, 
ठहर  जाती  हैं बस जिंदगी की घड़ियां!

                                -धर्मेन्द्र कुमार पाठक

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