कइसे जियब ए जान...

तोरा  बिना  हम  कइसे  जियब ए जान. अन्दरे   हमर   दिल   खखोरैत  हे परान.               दिलवा   हमर  तो   हे  केतना  नादान,                तनिको   ना    रह   हे   एकरा  धेयान. चोरी - चोरी  रोज  हम  करहिओ बात, तैयो  ना   जिउआ  हमर  जुड़ा हे जान.                   मोबलिया से  हमर  मनमा ना भर हौ,                    मिलेला  मनमा अबतो खूब छछन हौ.  दुखवा के तू कब  आके करब निदान, मिलेला   तोरा  से  छछनैत   हौ प्रान.                                       -धर्मेन्द्र कुमार पाठक.

क्या हम स्वतंत्र हैं? -धर्मेन्द्र कुमार पाठक



अब कैसे कहें कि  हम स्वतंत्र  हैं.
आज   कठघरे    में   प्रजातंत्र  है.

चारों   तरफ   हैं    स्वार्थी   चेहरे,
आदमी   सब     हैं   गूंगे     बहरे,
कहो, अब  यहां हम  कैसे  ठहरें,
अपनों   के  मध्य में  षड्यंत्र   है.

मंदिर   जहां   बैठते      माननीय,
कितने करके वे काम    निंदनीय,
फिर  भी  सभी के हैं  आदरणीय,
जिनका  हरेक  वचन  परतंत्र   है.

साम,  दाम, दंड, विभेद  सभी  है,
बड़े   बोल  की  भी  नहीं कमी  है,
किसीने    इन्हें     टोका   नहीं   है,
कुत्सित कर्म  ही जिनका  मंत्र   है.

              -धर्मेन्द्र कुमार पाठक.

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