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कइसे जियब ए जान...

तोरा  बिना  हम  कइसे  जियब ए जान. अन्दरे   हमर   दिल   खखोरैत  हे परान.               दिलवा   हमर  तो   हे  केतना  नादान,                तनिको   ना    रह   हे   एकरा  धेयान. चोरी - चोरी  रोज  हम  करहिओ बात, तैयो  ना   जिउआ  हमर  जुड़ा हे जान.                   मोबलिया से  हमर  मनमा ना भर हौ,                    मिलेला  मनमा अबतो खूब छछन हौ.  दुखवा के तू कब  आके करब निदान, मिलेला   तोरा  से  छछनैत   हौ प्रान.                                       -धर्मेन्द्र कुमार पाठक.

अलग अलख जगा लेना -धर्मेन्द्र कुमार पाठक

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तुम    चाहते   थे    मुझसे   दूरी   बना   लेना. अब स्वयं ही अपना अलग अलख जगा लेना. मृत्यु  नहीं  है  सिर्फ  शरीर  का  बदल  जाना, मृत्यु  तो  है  अपनी  ही  नजर  में  गिर जाना. अपने  ही  मन  का  मालिक  तो  है  हर कोई,  फिर  क्यों  दूसरे  पर  अपना  हक  जता देना. समय  से  सवाल  तो  सब   लोग  ही करते हैं, पर  कठिन   है  समय  से  पहले   उत्तर  देना. ना   कुछ   लेकर   आए,   ना   लेकर  जाएंगे, बस  चार  दिन  के  लिए  है  मन  बहला लेना.                                 -धर्मेन्द्र कुमार पाठक.

बनकरमूठ पकड़े हैं -धर्मेन्द्र कुमार पाठक

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हम सब बड़े हैं बे पेंदी के घड़े हैं यह मत पूछो कि कितनी बार लुढ़के हैं जहां से चले थे वहीं पर खड़े हैं अपनी ही बात को पकड़े हैं बात बात में टूट जाते ऐसे जैसे शीशे के टुकड़े हैं उस पर भी लानत यह कि आज तक अकड़े हैं बनरमूठ पकड़े हैं मन  न रंग सके रंगे केवल कपड़े हैं

बहुत आसान है -धर्मेन्द्र कुमार पाठक

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बहुत   आसान  है  अपना  कहलाना. बहुत ही  कठिन है अपना बन  जाना. यूं  तो  अब  जुड़  ही जाता है  रिश्ता, बहुत ही  मुश्किल  है  रिश्ता निभाना. तुम्हारा   मुझसे    से    बातें    करना, और  फिर   मधुर  यादों  में खो जाना. बहुत  याद  आता है  मुझको वह अब, साथ  में   एक  गुजरा   हुआ  जमाना. जहां बस हम थे, तुम थे और दिल था, एक   - दूसरे     से    रूठना    मनाना. जाने   आज  क्यों  फिर  से सभी बातें, अचानक  ही  अब  तो  याद आ जाना.                       -धर्मेन्द्र कुमार पाठक.

तिरते सपने -सा : -धर्मेन्द्र कुमार पाठक

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आँखों   में    तिरते    सपने  - सा                               हम   तैर   रहे   जग   में. कदम  -कदम    पर    रोड़े    फैले                              जायें     जिस    मग   में.   मन   की   घुलती   यादों    में                    नित   निर्मल  भाव  छलकता. आ   रहे   हो   मिलने   अभी   तुम                          कभी -कभी   है   लगता. तेरी  स्मृतियां   भरती   खुशियां        ...

सपनों के तंतु पर -धर्मेन्द्र कुमार पाठक

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सपनों के  तंतु पर  नित्य थिरक रहा मन है. उपवन में  मदिर-मदिर गूंज  रहे अलिगन हैं. भाव  का  बसंत  यहां  छेड़  रहा  सरगम है. कोयल की  कूक  से  गूंजित सदा मधुवन है. जाने  क्यों   स्वयं  को  तू  साजती  सँवारती. प्रेम  की   दीवानी  बन  पिया  को  पुकारती. अचानक   उंगलियों   को   दातों  से  दाबती. कोई   अब   देख  ना  ले  इसको हो  ताड़ती. चंचला -सी आज तुम प्रिये चमकती हो क्यों? मेरे  हृदय में  प्रतिपल  तुम दमकती हो क्यों? क्यों  मुझे  दूर  से  हो तुम अपलक निहारती. दिल  में   उतारें   हम   नित  तुम्हारी  आरती.                               -धर्मेन्द्र कुमार पाठक.

मैं -धर्मेन्द्र कुमार पाठक

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मैं मेरा   मन   चाहे   जिस  राह  चलूं  मैं. प्रीत  की  रीत   सदा  निवाह  चलूं  मैं. हर  पल  लिए  नया   उत्साह  चलूं मैं. न  किसी का  ले कभी  पनाह चलूं  मैं. अपने  प्यार  को  सदा   थाह   चलूं  मैं. हमेशा  सरसरी  कर   निगाह  चलूं  मैं. कर  न किसी की अब  परवाह चलूं  मैं. चाहे  जिस  पग पर अब  चाह चलूं  मैं. हर   जगह  उड़ाता  अफवाह  चलूं  मैं. ना   लेकर  किसी  की   आह  चलूं  मैं. सब  के  गले  मिल  यहां  वाह चलूं  मैं. न  किसी तरह का  कर  गुनाह चलूं  मैं.                        -धर्मेन्द्र कुमार पाठक.

'राधे राधे' बोल लो -धर्मेन्द्र कुमार पाठक

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        प्रेम   से  'राधे -राधे'     बोल   लो. श्रीकृष्ण     बसेंगे      तेरे   मन  में. मन   के  ही    मधुमय  वृंदावन  में.          आज तुम  अन्तर के पट  खोल लो.   अंतरस्तल    के    वन  -कानन  में. तेरे   परिमल  मन  के  मधुवन  में.        अपनी   प्रेम  की  गठरी   खोल लो. प्रकाश     भरेंगे      जीवन  -वन   में. भक्ति   भरेंगे    हिय  के  आंगन  में.          चाहे   मोल  इसका   अनमोल  लो. वंशी  मधुर   बजेगी  कण -कण  में. अप्रतिम  सुख  बरसेगा  जीवन  में.         तुम  अभी  तोल  ...

हंसी आ गई -धर्मेन्द्र कुमार पाठक

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तेरे   होठों   पर   हंसी   आ  गई. मेरी   तो   सारी  खुशी  आ  गई. कभी  यहां  मैं  लड़खड़ाता  नहीं, लगता है अब  मयकशी  आ गई. तेरे बिना गुजरता नहीं  एक पल, सांसो  में  तू  अब  बसी  आ  गई. कैसे करूं आज दिल से शिकवा, मेरी  तो  अब  दिलनशी आ गई.              -धर्मेन्द्र कुमार पाठक. 

मुस्कुरा देती हो -धर्मेन्द्र कुमार पाठक

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होठों   से   जो   बात   छुपा   लेती  हो. आंखों   से   वही   तुम  बता  देती  हो. अजब   हाल   होता  है   मेरे   दिल  का, जब  तुम  पलट  कर  मुस्कुरा  देती हो. इस तरह चला मोहब्बत का सिलसिला, जब    मुझसे   से   नैन   लड़ा   देती  हो. इसमें   बेचारे   दिल   का   क्या  कसूर, जो  उस  पर   इल्जाम  लगा   देती  हो. हमारे   बीच    अब   नहीं  है   फासला, फिर   भी   बहाने   क्यों  बना  देती  हो.                        -धर्मेन्द्र कुमार पाठक.

तुम -धर्मेन्द्र कुमार पाठक

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अचानक  तुम गर्दन  जब  झटकती  हो. खूबसूरत     अप्सरा - सी    लगती   हो. मस्त   होता  हुस्न  का   शोख   अंदाज, कभी  हौले - से  जब  तुम  लचकती  हो. बार-बार      अपनी     जुल्फें    सँवारती, खिली  गुलाब  की  कली -सी  लगती हो. मेरा    दिल    अपनी   ओर   मोड़ती  हो, बदन   की   अकड़न को  जब  तोड़ती हो. रुकता नहीं तुम्हारी बातों का सिलसिला, जब   तुम   मुझसे  बतियाने  लगती  हो. मेरे   इश्क   की   तुम   दुआ  लगती  हो, बेशक  तुम  हुस्न  की  अदा  लगती   हो.                       -धर्मेन्द्र कुमार पाठक.

यादों की लड़ी -धर्मेन्द्र कुमार पाठक

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मेरे  दिल  में  तेरी  यादों  की  लड़ी  हो  गई. तुम तो देखते - ही - देखते फुलझड़ी हो गई. तुम्हारे होठों पर हँसी की नव कली खिलती, तुम  देखते - ही - देखते  इतनी बड़ी हो  गई. रोज-ब -रोज बदल रहा है चलने का अंदाज, अब  आखिर ऐसी भी कैसी  गड़बड़ी हो गई. अब नजरें मिलाना फिर तेरा  नजरें चुराना, ऐसी  भी  कैसी मुसीबत  यहाँ खड़ी  हो गई?                             -धर्मेन्द्र कुमार पाठक.

चर्चा नये चुनाव की -धर्मेन्द्र कुमार पाठक

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नीम  की  शीतल  छाँव को  देखो! तुम    वही   बूढ़े   गाँव  को  देखो! बस  चौखट तक  चौकड़ी  मारते,  थके-हारे-से    पाँव     को    देखो! सागर-से   संसार  की    धार  में,  जीवन  की  खुली  नाव को देखो! जाने     कैसे     जीते    हैं    हम, हृदय  में  रिसते  घाव  को  देखो! दादा - दादी  के  नव   प्रेम - पगे,  सुंदर,  निर्मल  स्वभाव को  देखो! संध्या   को   बैठी   चौपालों   में, अब चर्चा  नव   चुनाव  की देखो!               -धर्मेन्द्र कुमार पाठक ं

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