कइसे जियब ए जान...

तोरा  बिना  हम  कइसे  जियब ए जान. अन्दरे   हमर   दिल   खखोरैत  हे परान.               दिलवा   हमर  तो   हे  केतना  नादान,                तनिको   ना    रह   हे   एकरा  धेयान. चोरी - चोरी  रोज  हम  करहिओ बात, तैयो  ना   जिउआ  हमर  जुड़ा हे जान.                   मोबलिया से  हमर  मनमा ना भर हौ,                    मिलेला  मनमा अबतो खूब छछन हौ.  दुखवा के तू कब  आके करब निदान, मिलेला   तोरा  से  छछनैत   हौ प्रान.                                       -धर्मेन्द्र कुमार पाठक.

ढूंढ रहा हूं -धर्मेन्द्र कुमार पाठक


आजकल 
रिश्तों के खंडहर में 
पुरखों का गांव 
ढूंढ रहा हूं.
मिट्टी में सने उनके 
धूल-धूसरित 
पांव के निशां 
ढूंढ़ रहा हूं.
उनके बोये हुए 
बरगद की
टहनी से निकले हुए 
जड़ में
अपनी उमस भरी 
जिंदगी से ऊब कर
थोड़ी -सी 
शीतल छांव 
ढूंढ  रहा हूं.
मैं अपने बचपन का
खोया हुआ गांव 
ढूंढ रहा हूं.

-धर्मेन्द्र कुमार पाठक. 

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