कइसे जियब ए जान...

तोरा  बिना  हम  कइसे  जियब ए जान. अन्दरे   हमर   दिल   खखोरैत  हे परान.               दिलवा   हमर  तो   हे  केतना  नादान,                तनिको   ना    रह   हे   एकरा  धेयान. चोरी - चोरी  रोज  हम  करहिओ बात, तैयो  ना   जिउआ  हमर  जुड़ा हे जान.                   मोबलिया से  हमर  मनमा ना भर हौ,                    मिलेला  मनमा अबतो खूब छछन हौ.  दुखवा के तू कब  आके करब निदान, मिलेला   तोरा  से  छछनैत   हौ प्रान.                                       -धर्मेन्द्र कुमार पाठक.

भक्त हरिनाथ : - डॉ.सुरेश पाठक

(डॉ. सुरेश पाठक हिंदी के प्रसिद्ध समालोचक थे। उन्होंने भक्त हरिनाथ और उनके साहित्य पर बहुत ही महत्वपूर्ण शोध परक अनेकानेक निबंध लिखे हैं। यहां प्रस्तुत है उनके द्वारा पांच दशक पूर्व लिखे गए भक्त हरिनाथ की जीवनी पर आधारित दो निबंध जो क्रमशः 'कल्याण' और 'शाकद्वीपीय ब्राह्मण बंधु' में प्रकाशित हुए थे। आशा है, इससे पाठकों की  भक्त हरिनाथ की जीवनी  संबंधी जिज्ञासा कुछ हद तक शांत होगी !)

कृष्णभक्त कविवर हरिनाथजी

(लेखक -श्रीसुरेशजी पाठक, साहित्याचार्य, एम.ए.)


श्रीहरिनाथजी पाठक 

गया (बिहार) जिलेके जहानाबाद अनुमण्डलान्तर्गत पाठक बिगहा नामक गाँवमें संवत् १९०० में भक्तवर श्रीहरिनाथजी पाठकका आविर्भाव हुआ था। प्रारंभमें आपने अपने पूज्य पितासे वेद-वेदाङ्गकी शिक्षा प्राप्त की और तत्पश्चात गया जिलेके मकसूदपुर ग्रामके महान् विद्वान् आचार्य शिवप्रसादजी मिश्रसे वेद-वेदाङ्ग, उपनिषद्, वेदान्त और सांख्यका विशिष्ट अध्ययन किया। साधनामें बहुत आगे होनेके कारण आचार्य मिश्रजीने अपने शिष्यको उच्च कोटिका साधक बनाया। पाठकजी हिंदी और संस्कृतके रससिद्ध कवि भी थे।

                धर्मपत्नीका असामयिक निधन इनकी साधनामें बाधक नहीं बन सका, अपितु वे दिनों-दिन साधना-पथमें अग्रसर होते गये। अब वे परम शान्ति एवं उपराम-हेतु पतित-पावनी गंगाके पावन तट पर पटना जिलेके बाढ़ नामक स्थानमें रहने लगे। वहीं इनकी भेंट प्रसिद्ध कृष्णभक्त योगीराज श्रीरामरूपदासजीसे हुई। श्रीहरिनाथजीने इनसे भगवान् कृष्ण-दर्शन सम्बन्धी अपनी व्याकुलता प्रकट की। भक्तकी पैनी दृष्टिने पाठकजीकी कृष्ण-विषयक विरहाग्निकी लपटोंमें  आर्द्रता उत्पन्न कर दी। संत रामरूपदासजीकी कृपासे साधना-पथकी पिपीलिका-गतिसे मुक्ति पाकर शुकगतिसे विहंगम दूरान्तर लक्ष्य-सिद्धि प्राप्त करने लगे। एक दिन वे श्रीकृष्णकी प्रतिमाके सामने रुदन करते-करते ध्यानस्थ एवं समाधिस्थ होकर आनंद-विभोर हो गये। एक रातको स्वप्नमें गोपीनाथजीने उन्हें दर्शन देकर कहा -'वत्स ! तू मेरी शरणमें आ, तेरा सारा संताप दूर हो जाएगा।' नींद टूटनेपर उन्हें कोई न मिला, लेकिन हृदयमें सांत्वना, शान्ति और दृढ़तापूर्ण निष्ठा जागृत् हो गई थी।

           तत्पश्चात वे काशी-प्रयाग होते मथुरा पहुँचे। वहीं भगवती कालिन्दीके तट पर पार्थसारथिके दर्शन-हेतु निराहार रहकर तप करने लगे। पाँचवे दिन एक गोपीने आकर एक लोटेमें दही लाकर दिया और उन्हें समझाया -'ब्राह्मणदेवता ! इस घोर कलिकालमें श्री राधा कृष्ण के दर्शन अत्यंत दुर्लभ हैं। आप कृपया यह दही खा लें।' ऐसा कह कर वह गोपी यमुना नदीमें चली गयी। हरिनाथजीने देखा कि उस गोपीके शरीर से तड़ित्-ज्योति निकली और अदृश्य हो गयी। इस दृश्यको देखकर आप आनन्द-विभोर हो गये। उस गोपीको राधा समझकर आपके अर्धोन्मीलित नेत्रों से अविरल आंसू बहने लगे। इस दशामें उनके मुँहसे जो भजन निःसृत हुआ, वह इस प्रकार है -

लागी लागी  श्याम सनेहिया से मन से न छूटे जी।।
जब से आए ब्रज मंडल में, लखि छवि प्यारी नंद नंदन के,
जगत सुत भवन विषय सुख झूठै जी।।१।।
नीले तन मोहन के राजे ता सम वसन प्यारी-तन छाजे,
पीत वसन दोउ सम जूटे जी।।२।।
जाके मुनि जन ध्यान लगावे, शेष सहस मुख पार न पावे,
ताहि नचावत गोप वधूटे जी।।३।।
जो सुख लीन्हें नंद यशोदा, राधे जू को प्रान प्रमोदा,
सो सुख जन हरिनाथहु लूटे जी।।४।।

 इसके कुछ दिन बाद वे अपने पिताजीकी बुलाहट पर चले आये। एक मास बाद पुनः मथुरा लौट आये। एक दिन वे ब्रजमें जब पूजनहेतु जल भर रहे थे तो कुएँमें गिर पड़े। एक लड़केने यह समाचार सर्वत्र फैला दिया। लोगोंके पहुँचने से पहले ही वे कुएँकी जगत पर थे। लोगोंके पूछनेपर आपने बताया कि ऊपरसे हाथ बढ़ाकर किसीने उन्हें खींच लिया। यह कार्य नन्दनन्दनको छोड़ और कौन कर सकता था ?

     उन्होंने बड़ी तन्मयता से 'ललितरामायण' की रचना की। जीवनके अन्तिम समयमें ये अपने प्रिय शिष्य द्वारा अहियापुर (टिकारी राज्य से दो मील दूर) ग्राममें निर्मित श्रीयुगलकिशोरके मन्दिर में रहते थे। गोलोक गमनसे कई दिनों पूर्व ही आपने एक भजन बनाया जो अक्षरशः सत्य प्रमाणित हुआ। इस भजनमें गोलोक गमनके लिए उल्लास चिरवाञ्छित प्राप्ति  और पूर्णतामें प्रवेशके आनन्दसे उनका मन-मयूर नृत्य करता-सा प्रतीत हो रहा है -

जइहौं जइहौं जी गोलोक से आए परवाना।
रथ ले नंद सुनंद जो आए अहियापुर में हुकुम सुनाए।
अब तो अवसी भए मोहि जाना।।१।।
संवत उनइस सौ एकसठ में, आसिन शुक्ल षष्ठी भृगु दिन में,
कुंभ लगन शुभ घड़ी महा प्रस्थाना।।२।।
आशिष दे निज कुल परिजन के, अहियापुर सेवक हरिजन के,
जन हरिनाथ गए हरिधामा।।३।।

अब यहाँ उन भक्त कविके कुछ भजन प्रस्तुत किये जा रहे हैं जो उनके चरित्रपर प्रकाश डालते हैं। कविको राम फकीरीका भेष ही प्यारा है, रूखे-सूखे भोजनमें ही उनकी रुचि है तथा सादा जीवन और उच्च विचार ही उन्हें अभीष्ट है। अपने-आपको वे प्रभु के चरणोंमें समर्पित कर चुके हैं -

भावे रे मोहि राम के फकीरी बाना।
कंबल ओढ़ना कंबल बिछवना कंबल का सिरहाना।
कंबल का अंगा और टोपी कंबल पर नित सोना।।१।।
आड़ बंद कौपीन कमण्डल कंठी तिलक चढ़ाना। 
रूखे सूखे साँझ सवेरे जो आवे सो खाना।।२।।
सियाराम कहि सियाराम कहि तीरथ में रमिजाना।
विषय वासना सकल छोड़ि के हरि लीला गुण गाना।।३।।
कर्म भोग दुख विपत्ति जो आवे कठिन कठिन सह जाना।
जन हरिनाथ विलग होय जग ते रघुवर हाथ सिखाना।।४।‌।
(ललितरामायण के उत्तरकाण्डसे)

'ललितरामायण' के अयोध्याकाण्ड में भरत-माता कैकेयी कोप-भवनमें पड़ी हैं। महाराज दशरथ जब उनसे इसका कारण जानना चाहते हैं तो कहती हैं कि उनके पुत्र -भरतको ही राजा बनाया जाय तथा श्रीरामको  चौदह वर्षोंके लिए जंगल का पथिक बनाया जाय। भरत- माता कैकेयीकी बात सुनकर महाराज दशरथकी उक्तिमें हमारे भक्त-कविके ऊँचे विचार दर्शनीय हैं -

कबहुँ न कीजै दुर्जन सँग।
धर्म नसावत पाप बढ़ावत, हृदय में जात उमंग।।१।।
नारी लंप, दुमतिके संग, निसि दिन बढ़त उनंग।।२।।
मद पी मद घट त्रिभुवन पावनी, दोषिनी होवत गंगा।।३।।
जन हरिनाथ सोऊ बिगरेंगे, यद्यपि गए हैं निहंग।।४।।

यह ललित रामायण आद्योपान्त सचमुच सभी प्रकार ललित है।
('कल्याण' वर्ष ५७ गोरखपुर सौर पौष, श्रीकृष्ण-संवत् ५२०९, दिसम्बर १९८३ ई. पृ.सं. ९४६ -९४७ से साभार )


ब्रह्मनिष्ठ भक्तिमूर्ति स्वर्गीय श्री हरिनाथ पाठक जी
            लेखक :- श्री सुरेश पाठक बी.ए.
            पाठक बिगहा, पत्रा. कींजर, गया

गया मण्डल के 'जहानाबाद' अनुमंडलावर्ती पाठक बिगहा (कींजर स्थित उच्च विद्यालय से लगभग सौ गज दक्षिण में विद्यमान) ग्राम में संवत् १९०० में भक्त शिरोमणि श्री हरिनाथ पाठक जी का जन्म हुआ था। आपने आरंभ में अपने पिता श्री शिवराम पाठक जी से ही वेद वेदाङ्ग की शिक्षा पायी। पुनः गया जिले के मकसूदपुर राज्य के राज्य पण्डित श्री शिव प्रसाद मिश्र जी से वेद, वेदाङ्ग, उपनिषद्, वेदान्त और सांख्य का विशिष्ट अध्ययन किया। वे साधना के मार्ग में बहुत आगे थे। अतः: उन्होंने अपने शिष्य को योग्यतम पात्र मानकर उच्च कोटि का साधक बनाया। पाठक जी हिंदी और संस्कृत के प्रसिद्ध कवि थे। फ़ारसी  के भी अच्छे ज्ञाता थे। उनकी तीन कृतियां प्रकाशित हैं :- ललिता रामायण, ललित भागवत और सत्यनारायण विनोद। ललित भागवत में लीला पुरुषोत्तम उज्जवल नीलमणि भगवान् श्री कृष्ण का चरित्र श्रीमद्भागवत को उपजीव्य बनाकर सरस गीतों में गाया गया है। सत्यनारायण विनोद में सत्यनारायण कथा को आधार बनाकर गीतों की निराली रचना की गई है। उन्होंने अपने आराध्य देव श्री कृष्ण को ही सभी रूपों में देखा है। उन्हीं की विभूति मानकर अन्य देवताओं के संबंध में कथा प्रसंगानुसार गीत रचे हैं।

अपनी धर्म पत्नी के असामयिक निधन से वे दुखी नहीं हुए किंतु साधना के मार्ग में ही यथाशीघ्र प्रगति के निमित्त बाधा निवृत्ति और स्वातंत्रय की अनुभूति से सुखी हुए। अतः  परम शांति और उपराम के लिए पतित पावनी गंगा के तट पर पटना जिले के 'बाढ़' नामक स्थान में रहने लगे। वही उस समय के प्रसिद्ध संत और भक्तराज श्री रामरूपदास जी से भेंट हुई। आप गया जिले के औरंगाबाद अनुमंडल के 'चंदावत' ग्राम के शाकद्वीपीय परिवार के थे। परम साधक और योगीराज थे। वेद-वेदांग, आगम, दर्शन और तंत्रशास्त्र में पारंगत थे। श्री हरिनाथ जी ने उनसे आराध्य देव भगवान श्री कृष्ण के दर्शनार्थ व्याकुलता प्रकट की। संत जी की पारखी आंखों में भी पाठक जी की इष्टदेव विषयक बिरहाग्नि की लपट ने आर्द्रता उत्पन्न कर दी। उनकी कृपा से साधना पथ की पिपीलिका गति से छुटकारा पाकर शुकगति से एक ही साथ दूरांतर लक्ष्य (मंजिल-दर-मंजिल पारकर) सिद्धि प्राप्त करने लगे तथा उसमें भटकाने वाले भ्रम-संशय मोह-वासनादि के आकर्षक सूक्ष्म संस्कारों से यथाशीघ्र शनै: शनै: निवृत्ति भी मिल गई। अब वे श्री कृष्ण की प्रतिमा के आगे रोते-रोते ध्यानस्थ और समाधिस्थ हो आनंद निमग्न भी हो जाने लगे। एक रात में स्वप्न में पीतांबरधारी पार्थसारथी ने दर्शन देकर कहा - 'वत्स ! तू मेरी सेवा कर सारा संताप दूर हो जाएगा।' नींद टूटने पर कोई नहीं मिला, किंतु हृदय में सांत्वना, शांति और दृढ़तामयी निष्ठा जागृत थी।

इसके उपरांत काशी प्रयाग होते हुए मथुरा पहुंचे। वहां यमुना तट पर श्री कृष्ण के दर्शनार्थ निर्जल उपवास युक्त तप: साधना में लीन हो गए। पांचवे दिन एक गोपी ने आकर कहा -'ब्राह्मण देव ! इस घोर कलि में राधा कृष्ण के दर्शन अतिशय दुर्लभ हैं। कृपया यह दही खा लीजिए !' उसके आकर्षक स्वर माधुरीमय  आश्वासन से अद्भुत शांति का अनुभव करते हुए यंत्र चालित से हाथ दही का पात्र थामने के हेतु आगे बढ़ गए। शरीर जकड़ा-सा आनंद विभोर रहा मन ही मन उस गोपी को श्री राधा समझकर स्तुति की। प्रसाद जानकर दही खाया। इस घटना से प्रसन्न होकर घर पर पिताजी के पास भी पत्र लिखा। अत: उन्हें लाने के लिए घर से एक आदमी भेजा गया। उसने देखा कि यमुना तट पर पाठक जी निम्नलिखित स्वरचित भजन गा रहे हैं। समाधि की सी दशा है। अर्धोन्मिलित आंखों से अविरल अश्रुधारा के रूप में हृदय की आकुलता प्रवाहित हो रही है। आइए, यह भजन हम लोग भी गा लें।

लागी लागी श्याम सनेहिया से मन से न छूटे जी।।
जब से आए ब्रज मंडल में, लखि छवि प्यारी नंद नंदन के,
जगत सुत भवन विषय सुख झूठे जी।।१।।
नीले तन मोहन के राजे ता सम वसन प्यारी-तन छाजे,
पीत वसन दोउ सम जूटे जी।।२।।
जाके मुनि जन ध्यान लगावे, शेष सहस मुख पार न पावे,
ताहि नचावत गोप वधूटे जी।।३।।
जो सुख लीन्हें नंद यशोदा, राधे जू को प्रान  प्रमोदा,
सो सुख जन हरिनाथहु लूटे जी।।४।।

पिताजी के आदेश से घर लौट आए किन्तु पुनः शीघ्र मथुरा चले गए। उपर्युक्त भजन से स्पष्ट है कि अपने आराध्य देव युगल किशोर के चरणों में अपने को उन्होंने निछावर कर दिया था। जगत से उन्हें सच्ची वितृष्णा हो चुकी थी। एक  दिन ब्रज में  पूजन के लिए जल भरते समय कुएं में गिर पड़े। एक बालक ने गिरने की खबर सर्वत्र फैलाई। लोगों के पहुंचने के पहले ही कुँए  की जगत  पर विश्राम करते देख लोगों के पूछने पर उन्होंने बताया कि ऊपर से ही हाथ बढ़ा कर किसी ने मुझे खींच लिया। विपत्ति विदारण दक्ष  कन्हैया के अतिरिक्त किसी और से ऐसा किया जाना संभव नहीं है।

अपने गोलोक धाम जाने से कई दिन पहले १९६१ संवत् में (१९०४ ख्रीस्ताब्द में) निम्नलिखित गीत गाया, जो अक्षरशः सत्य प्रमाणित हुआ। उस समय अपने भक्त शिष्यों के आग्रह से टिकारी राज्य (गया) से पश्चिम अहियापुर ग्राम में युगल किशोर मंदिर में निवास करते थे। गीत के अक्षरों से गोलोक गमन के लिए उल्लास, सौभाग्य, चिरवांछित प्राप्ति और पूर्णता में प्रवेश के आनंद से उनका मन-मयूर नाचता-सा प्रतीत होता है!

जइहौं जइहौं जी गोलोक से आए परवाना।
रथ ले नंद सुनंद जो आए अहियापुर में हुकुम सुनाए।
अब तो अवसी भए मोहि जाना।।१।।
संवत उनइस सौ एकसठ में, आसिन शुक्ल षष्ठी भृगु दिन में,
कुंभ लगन शुभ घड़ी महा प्रस्थाना।।२।।
आशिष दे निज कुल परिजन के, अहियापुर सेवक हरिजन के,
जन हरिनाथ गए हरिधामा।।३।।

उनका त्रिताल में बंधा तथा 'छाया नट' राग में रचा गीत वर्षा ऋतु का निराला वर्णन कर रहा है।

घन गरजि आये चहुँ ओर सघन ।
चपला चमकत भरि गयो है गगन ॥ १ ॥
हरि हरि गिरि वर्षण तृण तरु।
बोलत है अलि खगन मगन।।२।।
निशिदिन बादर पुनि पुनि बरसत।
बहुत अधिक क्षण पूरबी पवन।।३।।
जन हरिनाथ परस्पर हर्षत।
श्याम युगल छवि लगी है लगन।।४।।
(ललित रामायण, किष्किंधा कांड)

त्रिताल की ठुमरी में बंधा राग खमाच में विरचित गीत पंचवटी का वर्णन कर रहा है।

शीतल पंचवटी, वन गंगतटी शीतल जलधार हो।।१।।
शीतल ही तल तरुवर छाया शीतल बहत बयार हो।।२।।
शीतल चंद्रकिरण शीतल तृण, शीतल भूतल प्यार हो।।३।।
शीतल बेली चमेली गुलाब जुही चंपा और नेवार हो।।४।।
शीतल जैन हरीनाथ कुटीर में शीतल फूल के हार हो।।५।।
(ललित रामायण, अरण्यकांड)

पाठक जी, परम साधक, सिद्ध, भक्तराज, तपस्वी, संत, विद्वान, सुकवि और दिव्यदृष्टि-संपन्न भविष्य दृष्टा थे।

श्री सुरेश पाठक जी  बी.ए., भक्तवर्य स्व. हरिनाथ जी पाठक के प्रपौत्र हैं‌। उच्चांगल विद्यालय, पिंजरावां (पत्रा.) गया (पाठक बिगहा से १।। कोस दक्षिण )  अध्यापक है।
( शाकद्वीपीय ब्राह्मण बन्धु, वर्ष ४८, अंक ९+१०, मार्गशीर्ष +पौष वि.सं.२०२९, दिसम्बर +जनवरी १९७२-७३ ई., पृ.सं. ७२-७३. से साभार )

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