कइसे जियब ए जान...

तोरा  बिना  हम  कइसे  जियब ए जान. अन्दरे   हमर   दिल   खखोरैत  हे परान.               दिलवा   हमर  तो   हे  केतना  नादान,                तनिको   ना    रह   हे   एकरा  धेयान. चोरी - चोरी  रोज  हम  करहिओ बात, तैयो  ना   जिउआ  हमर  जुड़ा हे जान.                   मोबलिया से  हमर  मनमा ना भर हौ,                    मिलेला  मनमा अबतो खूब छछन हौ.  दुखवा के तू कब  आके करब निदान, मिलेला   तोरा  से  छछनैत   हौ प्रान.                                       -धर्मेन्द्र कुमार पाठक.

जमीन -धर्मेन्द्र कुमार पाठक


बात बहुत पुरानी है। आज से करीब दो सौ साल पहले की। एक महान संत थे। उनकी दृष्टि में अपने-पराये का भेद न था। उनसे जो भी मिलता उनका अपना बन जाता। उन्हें जो भी दक्षिणा स्वरूप धन मिलता उसे वे  ईश्वर का प्रसाद समझकर सभी जरूरतमंदों को  बांट देते। वे अपने पास कुछ भी धन नहीं रखते थे। वे निस्पृह भाव से परमात्मा के भजन  में तल्लीन रहते। जिसे वाकई मदद की जरूरत होती उसे उनसे मिलकर अपनी समस्या का समाधान मिल जाता । अकिंचन और निर्धनों पर उनकी विशेष कृपा होती। उनके इस दिव्य - व्यवहार की प्रसिद्धि  सर्वत्र फैल चुकी थी। उनके प्रिय शिष्यों में एक उनके सगे भतीजे भी थे जो शैशवावस्था में ही मातृ-पितृ विहीन होकर उनके साथ-साथ रह रहे थे। वे जहां भी जाते वे उनके साथ होते। भगवान के अनन्य भक्त को ही वे अपने माता-पिता के रूप में देखते। अपने संत पितृत्व के प्रति सदैव सेवाभाव से तल्लीन रहते।
एक दिन एक शिष्य के मन में यह ख्याल आया कि जब तक संत जी का आशीर्वाद इन के ऊपर है तब तक तो इन्हें कोई आर्थिक संकट का सामना नहीं करना पड़ेगा परंतु जब संत जी की छत्रछाया इनके ऊपर नहीं रहेगी तब इस अनाथ बालक का क्या होगा? ऐसा विचार आते ही उनके मन में एक उपाय सूझा। उन्होंने सोचा कि आज दक्षिणा स्वरूप संतजी को जो भी प्राप्त होगा उसे मैं मांग लूंगा। उन्होंने किया भी ऐसा ही। इस बार जो संत जी को चढ़ावे में मिला उसे उन्होंने एक निर्धन की मदद करने  के नाम पर  महात्मा जी से मांग लिया।उदारहृदय संत ने सहर्ष दान कर दिया। बाद में उसी दक्षिणा से उन्होंने कुछ जमीन उनके भतीजे के नाम पर खरीदवा दी।
संत जी के संज्ञान में जब यह बात आई तो उन्होंने कहा कि तुमने तो मुझे माया के बंधन में बांध दिया। मुझ पर कर्ज चढ़ा दिया। अब मैं इस कर्ज  से मुक्त होने का उपाय ढूंढ रहा हूं। इतना कह कर वे शांत चित्त होकर ध्यानस्थ हो गए।
उनकी दक्षिणा से खरीदी गई जमीन आज भी है। परंतु आज इनके वंशज इस तथ्य से अनजान हैं। इनके वंशजों में त्याग की भावना विलुप्त हो गयी है। एक दूसरे के  न्यायोचित हिस्से पर भी काकदृष्टि जमाये हैं। जिस धन के अर्जन और संरक्षण में  जिनका कोई योगदान नहीं, वे उसपर कुंडली मारकर बैठे हैं । बंटवारे की बंदरबांट में उलझे हैं। एक संत के कृपा प्रसाद का यह हस्र देख कर मैं हतप्रभ हूं। 
-धर्मेन्द्र कुमार पाठक. 

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