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कइसे जियब ए जान...

तोरा  बिना  हम  कइसे  जियब ए जान. अन्दरे   हमर   दिल   खखोरैत  हे परान.               दिलवा   हमर  तो   हे  केतना  नादान,                तनिको   ना    रह   हे   एकरा  धेयान. चोरी - चोरी  रोज  हम  करहिओ बात, तैयो  ना   जिउआ  हमर  जुड़ा हे जान.                   मोबलिया से  हमर  मनमा ना भर हौ,                    मिलेला  मनमा अबतो खूब छछन हौ.  दुखवा के तू कब  आके करब निदान, मिलेला   तोरा  से  छछनैत   हौ प्रान.                                       -धर्मेन्द्र कुमार पाठक.

मौका है... -धर्मेन्द्र कुमार पाठक

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मौका है ... धर्म   का   धंधा  तो  बड़ा  चोखा है.  लगता  है  जैसे  सब  कुछ  धोखा है. मन  से  भजो  अब  अपने  राम को; जब तक जीवन है तब तक मौका है. उड़ो मन की उड़ान, खुला आसमान; आखिर तुम को अब किसने रोका है. जो भी पल है  बस  यही  एक पल है, आखिर कल को कब किसने देखा है? मत  भटको  तुम  हाथ की लकीरों में, यह  तो   धुंधली  -सी   एक   रेखा  है.                      -धर्मेन्द्र कुमार पाठक.

लिख दूं. -धर्मेन्द्र कुमार पाठक

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लिख दूं . आज तेरी  पलकों  पर  प्यार  लिख दूं. तेरे   लिए    सारा    संसार   लिख   दूं. खुशियों   की  आभा  से   खिलते  हुए चेहरे   पर   सोलह    सिंगार  लिख  दूं. उन्नत   उरोजों   पर   उभरे   हुए   मृदु सहज  हृदय - राग को मल्हार लिख दूं. नव पल्लव पर विकसित नव प्रसून को, कच्ची   कली   को   कचनार   लिख दूं. हवा    के    थपेड़ों    से    झूमती   हुई अलकों  की  घटा  को   बहार  लिख दूं.                        -धर्मेन्द्र कुमार पाठक.

जवानी -धर्मेन्द्र कुमार पाठक

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जवानी सुनी   अब तक  यहां  कोई  कहानी नहींं.  क्या   अब तक  आई  तेरी  जवानी नहीं. धरती   है   सूखी   औ'  अंबर   है  रीताा; बादल  के  पास  क्या अब  है  पानी नहीं. न   बजते  हैं  घुंघरू, न  थिरकते हैं  पाॅव; लगता   है    यहां    कोई   दीवानी   नहीं. न   भॅवरे  मंडराते   हैं  कलियों  के  पास, कहीं  शेष  अब  प्रेम   की  निशानी  नहीं. यूं  ही  मचलते  रहे  सपने   भी  दिल  में; दिल की बात अब किसी को बतानी नहीं.                          -धर्मेन्द्र कुमार पाठक.

कोई मिल रहा होगा! -धर्मेन्द्र कुमार पाठक

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कोई मिल रहा होगा!  कलियों का मुखड़ा यूं ही नहीं खिला होगा। भौरों ने  कानों में   जरूर  कुछ कहा होगा।। झाड़ियों  के  पत्ते  यों  ही  नहीं  हैं   हिलते; कोई  तो  अवश्य  ही  वहां  रह  रहा होगा।। धुआं  तो  बेवजह  कभी भी उठता ही नहीं; आग का शोला तो अवश्य जल रहा होगा।। वह इतरा के इस तरह कभी फुदकती नहीं; कोई -न -कोई  चुपके  से  मिल  रहा होगा।। -धर्मेन्द्र कुमार पाठक.

विश्वास हुआ होता! -धर्मेन्द्र कुमार पाठक

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विश्वास हुआ होता! यदि   मेरे  प्यार  का  तुझे  विश्वास  हुआ होता। तो इस जीवन का हर पल कुछ खास हुआ होता।। तब   मैं  भी   बसता  तेरे  नैनों  में  सपनों  -सा; मिलने का कुछ और अलग  अंदाज  हुआ होता।। तेरा    हाथ    होता   मेरे   ही   हाथों   में   सदा; साथ -साथ चलने का तब  एहसास  हुआ होता।। साथ  बैठकर  हम  भी   तो  करते  हजार बातें; और   हर  बात  पर  हमें   ऐतबार  हुआ होता।। एक -दूसरे  से  कुछ  भी  तो  जुदा  नहीं होता; दोनों  का  सदा  एक  ही  अरमान  हुआ होता।। -धर्मेन्द्र कुमार पाठक

कायल हो गया...! -धर्मेन्द्र कुमार पाठक

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कायल हो गया....! तेरी  सुंदर  निगाहों  का  कायल  हो  गया! दिल  मासूम  था  बेचारा  घायल  हो गया! जाने  क्यों  नजरें  मिला के  चुरा  लेती हो,  दिल कभी घुंघुरू तो  कभी पायल हो गया! जब  तेरे-मेरे   दिल  का  दिल से  करार है; तेरा कॉल कहीं और  क्यों  डायल हो गया! बेचैनी  में  दिल  की   कैसी   हालत  मेरी; वफ़ा का  बेवजह यहां तो  ट्रायल हो गया!                           -धर्मेन्द्र कुमार पाठक.

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