कइसे जियब ए जान...

तोरा  बिना  हम  कइसे  जियब ए जान. अन्दरे   हमर   दिल   खखोरैत  हे परान.               दिलवा   हमर  तो   हे  केतना  नादान,                तनिको   ना    रह   हे   एकरा  धेयान. चोरी - चोरी  रोज  हम  करहिओ बात, तैयो  ना   जिउआ  हमर  जुड़ा हे जान.                   मोबलिया से  हमर  मनमा ना भर हौ,                    मिलेला  मनमा अबतो खूब छछन हौ.  दुखवा के तू कब  आके करब निदान, मिलेला   तोरा  से  छछनैत   हौ प्रान.                                       -धर्मेन्द्र कुमार पाठक.

क्या करूं? -धर्मेन्द्र कुमार पाठक

क्या करूं?

डूब  गई  नाव  यहां  तो  पतवार  का  क्या करूं?
घर  घर  ही  नहीं  रहा  तो  दीवार का क्या करूं?

जब   बोली  में  मिठास  ही  नहीं  रही अब बाकी; 
तो  दिल  में  उमड़  रहे प्रभूत प्यार का क्या करूं?

जब  तुम  कभी हम सबको अपना समझे ही नहीं;
तो  सिर्फ दिखावे के  सद्व्यवहार का  क्या  करूं?

जब  ईश्वर  से  अपना  यह दिल ही नहीं जुड़ सका;
तो  इस  सुंदरतम,  सुखमय  संसार  का क्या करूं?

जब   बीमार    पिता   ही   हमारे   साथ  नहीं   रहे;
तो आखिर अब इस अनमोल अनार का क्या करूं?

जब  बाग  में  खिलने  को  कोमल कलियां ही नहीं;
तो  यहां  मौसम-ए-बसंत-बहार   का   क्या   करूं?

जब   वे   मुसीबत   में   कभी   साथ  देते  ही  नहीं;
तो   ऐसे   काबिल   रिश्तेदार  का   मैं  क्या  करूं?

जब    रहा   एक   - दूसरे    पर   ऐतबार  ही  नहीं;
तो  ऐसे  खास  भले  यार  का  अब  मैं क्या  करूं?

-धर्मेन्द्र कुमार पाठक.

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