कइसे जियब ए जान...

तोरा  बिना  हम  कइसे  जियब ए जान. अन्दरे   हमर   दिल   खखोरैत  हे परान.               दिलवा   हमर  तो   हे  केतना  नादान,                तनिको   ना    रह   हे   एकरा  धेयान. चोरी - चोरी  रोज  हम  करहिओ बात, तैयो  ना   जिउआ  हमर  जुड़ा हे जान.                   मोबलिया से  हमर  मनमा ना भर हौ,                    मिलेला  मनमा अबतो खूब छछन हौ.  दुखवा के तू कब  आके करब निदान, मिलेला   तोरा  से  छछनैत   हौ प्रान.                                       -धर्मेन्द्र कुमार पाठक.

क्यो ? -धर्मेन्द्र कुमार पाठक

क्यों?

क्यों मुझे निहारती ही रह गई तुम?
बालों को संवारती ही रह गई तुम!

दांतों  से  होंठ  काटती ही रह गई तुम!
आंखों से आंख मारती ही रह गई तुम!

हाथों से हाथ दाबती ही रह गई तुम!
जीभ से होंठ चाटती ही रह गई तुम!

आत्मा  को  तरसाती ही रह गई तुम!
पलकों को झपकाती ही रह गई तुम!

© धर्मेन्द्र कुमार पाठक.

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