कइसे जियब ए जान...

तोरा  बिना  हम  कइसे  जियब ए जान. अन्दरे   हमर   दिल   खखोरैत  हे परान.               दिलवा   हमर  तो   हे  केतना  नादान,                तनिको   ना    रह   हे   एकरा  धेयान. चोरी - चोरी  रोज  हम  करहिओ बात, तैयो  ना   जिउआ  हमर  जुड़ा हे जान.                   मोबलिया से  हमर  मनमा ना भर हौ,                    मिलेला  मनमा अबतो खूब छछन हौ.  दुखवा के तू कब  आके करब निदान, मिलेला   तोरा  से  छछनैत   हौ प्रान.                                       -धर्मेन्द्र कुमार पाठक.

मन की गति -धर्मेन्द्र कुमार पाठक


मन की गति

मन  ही  मंथरा  और  मन  कैकेई।
मन  की  गति  को बुझै नहीं कोई।।

कभी चंचल बहुत, कभी गति हीन।
कभी सुख - चैन  लेता सभी छीन।।

कभी  प्रभु - पद का  रहे अनुरागी।
कभी  विषय - भोग का रहे भागी।।

योगी  - भोगी   सभी   एक  समान।
सभीको  अपने   स्वार्थ  का  ध्यान।।

जगत  के  रिश्ते  हैं  सब  अनजान।
हरि चरण का कर  तू नित गुणगान।।

-धर्मेन्द्र कुमार पाठक.

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