कइसे जियब ए जान...

तोरा  बिना  हम  कइसे  जियब ए जान. अन्दरे   हमर   दिल   खखोरैत  हे परान.               दिलवा   हमर  तो   हे  केतना  नादान,                तनिको   ना    रह   हे   एकरा  धेयान. चोरी - चोरी  रोज  हम  करहिओ बात, तैयो  ना   जिउआ  हमर  जुड़ा हे जान.                   मोबलिया से  हमर  मनमा ना भर हौ,                    मिलेला  मनमा अबतो खूब छछन हौ.  दुखवा के तू कब  आके करब निदान, मिलेला   तोरा  से  छछनैत   हौ प्रान.                                       -धर्मेन्द्र कुमार पाठक.

चली गई! -धर्मेन्द्र कुमार पाठक

एक मुक्त गीत
( यह गीत मुक्त - छंद में निबद्ध है)

वह एक ख्वाब बनकर चली गई !
सबके लिए लाजवाब बनकर चली गई!

दुनिया की तोहमतों पर उसने कुछ कहा नहीं;
तुम जो समझते रहे, वह उसकी जहां नहीं;
अनंत में वह मिल गई, अब वह कहां नहीं?
बस हल्के से मुस्कुरा कर चली गई !
खुदा का ख्वाब बनकर चली गई!
सबका जवाब बनकर चली गई!

सबको उसकी शख्सियत पर सवाल था;
सबको अपने आपका ही ख्याल था;
उसके रूबरू होने का मलाल था;
वह सबके लिए मिसाल बन कर चली गई!

अब किस हक से उस पर आंसू बहाते हो?
बेवजह प्यार इतना जताते हो;
उसे अपनों से भी अपना बताते हो;
सबके लिए वह ख्याल बन कर चली गई!

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