कइसे जियब ए जान...

तोरा  बिना  हम  कइसे  जियब ए जान. अन्दरे   हमर   दिल   खखोरैत  हे परान.               दिलवा   हमर  तो   हे  केतना  नादान,                तनिको   ना    रह   हे   एकरा  धेयान. चोरी - चोरी  रोज  हम  करहिओ बात, तैयो  ना   जिउआ  हमर  जुड़ा हे जान.                   मोबलिया से  हमर  मनमा ना भर हौ,                    मिलेला  मनमा अबतो खूब छछन हौ.  दुखवा के तू कब  आके करब निदान, मिलेला   तोरा  से  छछनैत   हौ प्रान.                                       -धर्मेन्द्र कुमार पाठक.

प्राणों का जंगल -धर्मेन्द्र कुमार पाठक

प्राणों का जंगल
-धर्मेन्द्र कुमार पाठक

तुम सुलगती रही,
मैं भी  पिघलता रहा।।
तुम भी बुझती रही, 
मैं भी मिटता रहा।।१।।

तुम भी तो खोती रही
मैं भी तो खोता ही रहा।।
गतिशील जीवन का,
आनंद मिलता रहा।।२।।

फूल भी खिलते रहे
हम भी मिलते रहे।।
तितलियां गाती रहीं
स्वप्न मचलते रहे।।३।।

न तेरा कोई ठिकाना 
न मेरा कोई ठिकाना।।
इस जग में केवल
बस आना और जाना ।।४।।

रात भी ढलती रही
दिन निकलता रहा।।
एक नया जीवन भी 
हमें तो मिलता रहा।।५।।

किसी से है क्या पूछना
किसी को है क्या बताना।।
मन की बातें तो बस 
मन को ही समझाना।।६।।

मैं कैसे तुझको पाऊं
मैं कैसे तुझको ध्याऊं।।
मिलना सरल नहीं
जीवन तरल नहीं।।७।।

सूझता अमल नहीं
मन भी धवल नहीं।।
यह प्राणों का जंगल
झील का कमल नहीं।।८।।


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